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Sanskrit Domain Test - 10

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Sanskrit Domain Test - 10
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Weekly Quiz Competition
  • Question 1
    5 / -1

    ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ किम् अस्ति?

    Solution

    प्रश्न का हिन्दी अनुवाद - अभिज्ञानशाकुन्तलम् क्या है?

    स्पष्टीकरण -

    ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ कालिदास विरचित तीन नाटकों में से एक नाटक है। ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के अलावा विक्रमोर्वशीयम् तथा मालविकाग्निमित्रम् यह कालिदास के अन्य नाटक है।

    • अभिज्ञानशाकुन्तलम् सात अंकों का नाटक है।
    • इसमें राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुनर्मिलाप का सुन्दर कथानक है।
    • मूल कथानक महाभारत के आदिपर्व से है। पद्मपुराण में भी यह कथानक है तथापि पद्मपुराण का काल कालिदास के बाद माना जाता है इसलिए यह नाटक महाभारत के कथानक पर आधारित है।
    • दुष्यंत, शकुंतला तथा कण्व प्रमुख पात्र है। तथा नायक धीरोदात्त है।
  • Question 2
    5 / -1
    मेघदूतं केन छन्दसा निबद्धमस्ति ?
    Solution
    प्रश्नानुवादमेघदूत किस छन्द में निबद्ध है ?

    स्पष्टीकरण - मेघदूत ग्रन्थ मन्दाक्रान्ता छन्द में निबद्ध है

    • मेघदूत महाकवि कालिदास की अप्रतिम रचना है। अकेली यह रचना ही उन्हें कविकुल गुरु उपाधि से मण्डित करने में समर्थ है।
    • भाषा, रस, छंद और चरित्र-चित्रण समस्त दृष्टियों से मेघदूत अनुपम खण्डकाव्य है। सहृदय रसिकों ने मुक्त कंठ से इसकी सराहना की है।
    • समीक्षकों ने इसे न केवल संस्कृत जगत में अपितु विश्व साहित्य में श्रेष्ठ काव्य के रूप में अंकित किया है। 
      • महाकवि कालिदास ने सम्पूर्ण मेघदूत की रचना मन्दाक्रान्ता छंद में की है।
    • इस छंद का लक्षण इस प्रकार है - मन्दाक्रान्ताऽम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ गयुग्मम्
      • अर्थात् इस छंद के प्रत्येक पाद में 17 अक्षर होते हैं। वे मगण, भगण, नगण, तगण, तगण और दो गुरु इस क्रम में होते हैं तथा चौथे, दसवें, सत्रहवें अक्षर पर यति होती है।
      • मेघदूत में विप्रलम्भ रस की गंभीरता और भावविह्वलता का बोध कराने के लिए मंथरगति से पढ़ा जाने वाला मन्दाक्रान्ता छंद अपनाया गया है। खेद, दुःख, विपत्ति, प्रवास, वर्षा आदि के वर्णन में मन्दाक्रान्ता छंद रुचिकर माना गया है।

     

    अतः स्पष्ट है कि मेघदूत ग्रन्थ मन्दाक्रान्ता छन्द में निबद्ध है।

  • Question 3
    5 / -1
    दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति ______ गुणाः।
    Solution

    प्रश्न का अनुवाद - दण्डी के पास पदलालित्य है, माघ के पास ______ गुण हैं।

    स्पष्टीकरण - दण्डी के पास पदलालित्य की सम्पदा है, लेकिन माघ के पास तीन गुण हैं।

    Important Points 

    संस्कृत-साहित्य - 

    • संस्कृत-साहित्य में एक सूक्ति प्रसिद्ध है -  उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम् , दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः। 
    • अर्थात् उपमा कालिदास की प्रसिद्ध है। भारवि अपने अर्थगौरव के लिए  विख्यात हैं । दण्डी अपने पदलालित्य के लिए जाने जाते हैं, अब बात आती है महाकवि माघ की तो उक्त सूक्ति का यही अर्थ है "माघे सन्ति त्रयो गुणा:"अर्थात कालिदास की उपमा, भारवि का अर्थगौरव तथा महाकवि दण्डी का पदलालित्य इन तीनों के को गुण है वे सारे गुण महाकवि माघ में विद्यमान है, मतलब महाकवि माघ के महाकाव्य में कालिदास  की उपमा-अलंकार, भारवि के अर्थगौरव ओर दण्डी का पद लालित्य ये तीनों गुण पाए जाते है।

    अतः स्पष्ट है कि दण्डी के पास पदलालित्य की सम्पदा है, लेकिन माघ के पास तीन गुण हैं।

  • Question 4
    5 / -1

    'कादम्बरी' ग्रन्थस्य रचनाकारः कः?

    Solution

    प्रश्न का अनुवाद - कादंबरी रचना के रचनाकार / लेखक कौन है?

    स्पष्टीकरण - कादंबरी रचना के रचनाकार / लेखक बाणभट्ट महोदय है।

    Key Points बाणभट्ट - 

    • कादंबरी बाणभट्ट की रचना है।
    • बाण के नाम से दो गद्यकाव्य सर्वप्रसिद्ध है एक हैं – हर्ष​चरित और दूसरा कादम्बरी।
    • बाण की तीसरी कृति चण्डीशतक है जो एक गीतिकाव्य है।
    • बाण ने दो काव्य-नाटक भी ​लिखे हैं, जिनमें एक का नाम है पार्वतीपरिणय और दूसरे का नाम है मुकुटताडितक

    कादंबरी रचना - 

    • कादंबरी संस्कृत साहित्य का महान उपन्यास है। यह विश्व का प्रथम उपन्यास कहलाने का अधिकारी है। इसकी कथा सम्भवतः गुणाढ्य द्वारा रचित बड्डकहा (वृहद्कथा) के राजा सुमानस की कथा से ली गयी है। यह रोमानी, प्रेम भावना से एक कथा उपन्यास है।

    • यह ग्रन्थ बाणभट्ट के जीवनकाल में पूरा नहीं हो सका। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र भूषणभट्ट (या पुलिन्दभट्ट) ने इसे पूरा किया और पिता द्वारा लिखित भाग का नाम 'पूर्वभाग' एवं स्वयं द्वारा लिखित भाग का नाम 'उत्तरभाग' रखा।

    • जहाँ हर्षचरितम् आख्यायिका के लिए आदर्शरूप है वहाँ गद्यकाव्य कादम्बरी कथा के रूप में। बाण के ही शब्दों में इस कथा ने पूर्ववर्ती दो कथाओं का अतिक्रमण किया है। अलब्धवैदग्ध्यविलासमुग्धया धिया निबद्धेय-मतिद्वयी कथा-कदम्बरी। 

    • कादंबरी के प्रारम्भ में बाणभट्ट ने 20 श्लोकों की रचना की है। प्रारम्भिक तीन श्लोकों में देवताओं की स्तृति में लिखे गये हैं तदनन्तर गुरुवन्दना, खलनिन्दा आदि विषयों का वर्णन करके अन्त में कवि ने वंशक्रम का उल्लेख किया है। कथा का प्रारम्भ राजा शूद्रक के वर्णन से होता है।

    अतः स्पष्ट है की कादंबरी रचना के रचनाकार / लेखक बाणभट्ट महोदय है।

    Additional Information

    • ​भट्टनारायण -भट्ट नारायण संस्कृत के महान नाटककार थे। वे अपनी केवल एक कृति वेणीसंहार के द्वारा संस्कृत साहित्य में अमर हैं। 
    • भट्टोजिदीक्षित - भट्टोजिदीक्षित चतुर्मुखी प्रतिभाशाली सुप्रसिद्ध वैयाकरण थे।इन्हों ने सिद्धान्तकौमुदी की रचना की।
    • दण्डी - दण्डी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। दशकुमारचरितम्, काव्यादर्श, छन्दोविचितिः, कलापरिच्छेदः आदि की रचना की।
  • Question 5
    5 / -1
    'उदेति पूर्वं कुसमं ततः फलम्।' उपर्युक्तचरणे छन्दस: नाम अस्ति
    Solution

    प्रश्न अनुवाद - 'उदेति पूर्व कुसमं ततः फलम्।' उपर्युक्त चरण में छन्द का नाम है ?
    स्पष्टीकरण -

    • यह बारह वर्णों का समवृत्त छन्द है। वंशस्थ छन्द के प्रत्येक चरण में बारह वर्ण होते है।
    • अतः चारों चरणों में कुल मिलाकर (12 x 4 - 48) अड़तालीस वर्ण होते है। 
    • इसमें 12 वर्ण पर अर्थात् चरण के अन्त में यति होती है।

     conclusion

    • लक्षण - ‘जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ'
    • जतौ - जगण तथा तगण, जरौ - जगण और रगण, तु - तो, वशंस्थम् उदीरितम् - वंशस्थ कहा गया है। यहाँ प्रत्येक चरण में जगण (।ऽ।), तगण (ऽऽ।), जगण (।ऽ।) और रगण (ऽ।ऽ) होते है। 
    • अर्थात् क्रमशः जगण, तगण, जगण और रगण-इन चार गणों को वंशस्थ कहते है।

    उदाहरण -
    । ऽ । ऽ ऽ । । ऽ ।ऽ  ।  ऽ
    उदेति पूर्वं कुसमं ततः फलम्  (12 वर्ण, चरण के अन्त में यति)
    धनोदयः प्राक्तदनन्तरं पयः ।
    निमित्तनैमित्तिकयोरयं क्रमस्तव 
    प्रसादस्य पुरस्तु सम्पदः ॥

    अत: 'वंशस्थ' विकल्प सही है। 

  • Question 6
    5 / -1

    'पृथुकार्तस्वरपात्रं भूषितनिःशेषपरिजनं देव।

    विलसत्करेणुगहनं सम्प्रति सममावयोः सदनम्॥'

    इत्यत्र कः अलङ्कारः वर्तते?

    Solution

    प्रश्नानुवाद - 'पृथुकार्तस्वरपात्रं भूषितनिःशेषपरिजनं देव। विलसत्करेणुगहनं सम्प्रति सममावयोः सदनम्॥' यहाँ कौन-सा अलङ्कार है?

    स्पष्टीकरण - उक्त पंक्ति में "पृथुकार्तस्वरपात्रं" और "भूषितनिःशेषपरिजनं" में श्लेष अलंकार है। 
    "श्लेष: स वाक्ये एकस्मिन् यत्रानेकार्थता भवेत्"

    • अर्थात् एकाधिक अर्थवाले शब्द को श्लिष्ट शब्द कहा जाता है। 
    • जब ऐसे वाक्यों में श्लिष्ट शब्दों का प्रयोग हो और वह शब्द कई अर्थ लाये। 
    • फिर उसके कारण अर्थ में अधिकता आ जाये, तो वहां श्लेष अलंकार होता है।
    उदाहरण - "पृथुकार्तस्वरपात्रं भूषितनिःशेषपरिजनं देव"
    • यहां पर "पृथुकार्तस्वरपात्रं" और "भूषितनिःशेषपरिजनं" दोनों पद श्लेष शब्द है। 
    • पृथुकार्तस्वरपात्रं - याजक का घर बालकों का भूख से रोने का स्थान है। 
                                       राजा का घर सोनें के बडे बडे बर्तनों से युक्त है। 
    • भूषितनिःशेषपरिजनं - सारे जन अलंकृत है। 
                                            सारे परिजन भूमि पर पडे है।
    • दोनों पद एकाधिक अर्थवाले श्लिष्ट शब्द है। 

    इस प्रकार स्पष्ट है कि उक्त पंक्ति में श्लेष अलंकार है। Key Pointsअन्य विकल्प -

    1. उत्प्रेक्षा -

    • "भवेत् सम्भावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना"
    • उपमान के द्वारा प्रकृत (उपमेय) की सम्भावना ही उत्प्रेक्षा अलङ्कार है।

    2. उपमा  -

    • "साधर्म्यमुपमा भेदे" 
    • अर्थात् दो वस्तुओं में भेद रहने पर भी, जब उनकी समानता का प्रतिपादन किया जाता है।

    3. अर्थान्तरन्यासः - 

    • "भवेदर्थान्तरन्यासोऽनुषक्तार्थान्तराभिधा"
    • मुख्य अर्थ का समर्थन करने वाले अर्थान्तर (दूसरे वाक्यार्थ) का प्रतिपादन (न्यास) अर्थान्तरन्यास अलंकार कहलाता है।
  • Question 7
    5 / -1
    अनुप्रासालङ्कारलक्षणे कस्य वैषम्यमपि संभवति?
    Solution

    प्रश्न की हिन्दी - अनुप्रासालङ्कार के लक्षण में किसका वैषम्य भी संभव होता है?

    स्पष्टीकरण - 

    • अनुप्रास अलङ्कार - "वर्णसाम्यमनुप्रास:"
    • अर्थात् वर्णों की समानता का नाम अनुप्रास हैI 
    • जब एक ही वाक्य में एक ही वर्ण की आवृत्ति बार-बार पाई जायेI 
    • अनुप्रास दो प्रकार का होता है - वर्णानुप्रास और पादानुप्रास 
    • वर्णानुप्रास के दो भेद है - छेकानुप्रास और वृत्यानुप्रास 
    • पादानुप्रास का दूसरा नाम लाटानुप्रास हैI 
    आचार्य विश्वनाथ के अनुसार - "अनुप्रास: शब्दसाम्यं वैषम्ये अपि स्वरस्य यत्"
    • अर्थात् स्वरों की विषमता होने पर भी काव्यों में पायी जाने वाली शब्दों की समता को अनुप्रास अलंकार कहते हैI 
    • अतः स्पष्ट है कि स्वरों की विषमता होने पर भी काव्यों में पायी जाने वाली शब्दों की समता पायी जाती हैI 

     

    इसीलिये यहाँ "स्वरस्य" सही विकल्प हैI 

  • Question 8
    5 / -1
    नीतिशतकस्य रचयिता अस्ति -
    Solution

    प्रश्न का अनुवाद - 'नीतिशतकम्' के रचयिता है -

    स्पष्टीकरण - 'नीतिशतकम्' के रचयिता है - भर्तृहरि है।

    Key Points

    भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम् -

    • भर्तृहरि ने जीवन और सदाचार से सम्बन्ध रखने वाले अनुभवों को नीतिशतक में पद्य के रुप में प्रकट कर व्यक्ति तथा समाज का कल्याण किया है।
    • इसका भारतवासियों के चरित्र-निर्माण में विशेष प्रभाव पड़ा है तथा यह नैतिकता पर आधारित होने के कारण राष्ट्र तथा समाज के लिए कल्याणदायक है।
    • इनके द्वारा वैयक्तिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सांस्कृतिक गतिविधियों पर उचितानुचित दृष्टिकोंणों से विचार किया जाता है।
    • कभी-कभी तो इन श्लोकों की प्रेरणा से वैयक्तिक जीवन में महान् परिवर्तन दिखायी देता है।
    • भर्तृहरि ने इसमें मंगलाचरण करने के उपरान्त सर्व प्रथम मूर्खों की निन्दा तथा विद्वानों की प्रशंसा की है। आगे के विषयों में मान-शौर्यकी प्रशंसा, कर्म-प्रशंसा आदि का बड़े गाम्भीर्य शैली में विचार किया गया है।
    • संस्कृत विद्वान और टीकाकार भूधेन्द्र ने नीतिशतक को निम्नलिखित भागों में विभक्त किया है, जिन्हें 'पद्धति' कहा गया है-
    1. मूर्खपद्धति
    2. विद्वत्पद्धति
    3. मान-शौर्य-पद्धति
    4. अर्थपद्धति
    5. दुर्जनपद्धति
    6. सुजनपद्धति
    7. परोपकारपद्धति
    8. धैर्यपद्धति
    9. दैवपद्धति
    10. कर्मपद्धति

    अतः स्पष्ट है की 'नीतिशतकम्' के रचयिता है - भर्तृहरि है।

    Additional Information

    • भारवि:- संस्कृत के महान कवि हैं। वे अर्थ की गौरवता के लिये प्रसिद्ध हैं ("भारवेरर्थगौरवम्")। किरातार्जुनीयम् महाकाव्य उनकी महान रचना है।
    • भवभूति:- संस्कृत के महान कवि एवं सर्वश्रेष्ठ नाटककार थे। उनके नाटक, कालिदास के नाटकों के समतुल्य माने जाते हैं। भवभूति के तीन नाटक - महावीरचरितम् , उत्तररामचरितम् , मालतीमाधव।
  • Question 9
    5 / -1
    कोऽस्ति प्रधानो रसः शिवराजविजयस्य ?
    Solution

    प्रश्नानुवाद - शिवराजविजय का प्रधान रस कौनसा है ?-

    स्पष्टीकरण - शिवराजविजय ग्रन्थ में वीर रस की प्रधानता है। अन्य रसों का उपयोग सहायक रस के रूप में हुआ है। यह राष्ट्रभक्ति भावना से ओत-प्रोत संस्कृत उपन्यास है। इस ग्रन्थ के रचयिता अम्बिकादत्त व्यास है।

    किसी काव्य की पंक्ति को पढ़कर मन में भाव जागृत होते हैं एवं अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है। ये मन के भाव ही रस कहलाते हैं। "वाक्यं रसात्मकं वाक्यं" अर्थात् रस युक्त वाक्य ही काव्य है। रस को काव्य की आत्मा कहा जाता है। 

    • इस ग्रन्थ में शिवाजी महाराज की विजय का वर्णन है।
    • इस ग्रन्थ में तीन विराम है। प्रत्येक विराम में चार निःश्वास हैं। इस तरह कुल 12 निःश्वास हैं।
    • यह संस्कृत का प्रसिद्ध उपन्यास है। इस ग्रन्थ में वीर रस की प्रधानता है।
    • इसका कथानक इस प्रकार है – दक्षिण देश में (यवन) शासकों के अत्याचारों से तगं आकर शिवाजी (शिवराज) स्वतन्त्रता के  लिए संघर्ष आरम्भ करते हैं और उन्हें इस कार्वय में सफलता भी मिलती है। उनकी विजय से घबराकर बीजापुर का शासक उन्हें मारने के लिए अफजल खान को भेजता है। वे उसे भी मौत के घाट उतार देते हैं। कवि ने शिवाजी के मुख से सम्पूर्ण राष्ट्र की मुक्ति की उद्घोषणा करवायी है – ‘कार्यं हि साधयेयं देहं वा पातयेयम्।'
    • कवि ने प्रस्तुत उपन्यास में ऐतिहासिक पात्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक पात्रों की परिकल्पना की है। 
    • शिवराज विजय तत्कालीन स्वाधीनता संग्राम के लिए एक प्रेरणादायी मार्गदर्शक काव्य सिद्ध हुआ है।

     

    अतः स्पष्ट है कि शिवराजविजय ग्रन्थ में वीर रस की प्रधानता है। जो एक प्रसिद्ध संस्कृत उपन्यास है।

  • Question 10
    5 / -1
     वेदाङ्गानां सङ्ख्या भवति 
    Solution

    प्रश्न का अनुवाद -  वेदाङ्गों कि संख्या है - 

    स्पष्टीकरण - वेदाङ्गों कि संख्या षट् - छ: है।

    Key Points

    वेदाङ्ग - 

    • वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं।
    • वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'।
    • वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-
    1. शिक्षा - इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है। स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो, उसे शिक्षा कहते है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उदेश्य से हुआ है।
    2. कल्प - वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।
    3. व्याकरण - इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है। वेद-शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदांग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।
    4. निरुक्त - वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया गया है। इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरुक्त है। इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।
    5. ज्योतिष - इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है। यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।
    6. छन्द - वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है। इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है। ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।


    मुण्डकोपनिषद में कहा गया है की -

    • 'तस्मै स हो वाच। द्वै विद्ये वेदितब्ये इति ह स्म यद्ब्रह्म विद्यौ वदंति परा चैवोपरा च॥ तत्रापरा ॠग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽर्थ वेद: शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दोज्योतिषमिति। अथ परा यथा तदक्षरमधिगम्यते॥'
    •  'अर्थात मनुष्य को जानने योग्य दो विद्याएं हैं-परा और अपरा। उनमें चारों वेदों के शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष- ये सब 'अपरा' विद्या हैं तथा जिससे वह अविनाशी परब्रह्म तत्त्व से जाना जाता है, वही 'परा' विद्या है।' इन छ: को इस प्रकार बताया गया है-
    • "छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते
      ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।
      शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्
      तस्मात्सांगमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते॥"
    • 'अर्थात छन्द वेदरुपी पुरुष के पैर हैं, कल्प उसके दो हाथ हैं, ज्योतिष दो नेत्र हैं, निरुक्त दो कान हैं, शिक्षा नासिका है और व्याकरण मुख है।अतः अंगों सहित वेद का अध्ययन करके ही मनुष्य ब्रह्मलोक में महिमा को प्राप्त होता है।

    अतः स्पष्ट है की वेदाङ्गों कि संख्या षट् - छ: है।

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