JAC Board 12th History Exam 2024 : Top 25 (4 Marks) Questions with Answers (दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)

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झारखंड बोर्ड 12वीं की History (इतिहास ) परीक्षा 13 फरवरी, 2024 को निर्धारित है। तो यह आर्टिकल आपके लिए काफी ज्यादा महत्वपूर्ण साबित होने वाला है क्योंकि इस आर्टिकल में आपको बोर्ड परीक्षा के लिए वो ही प्रश्न दिए गए है जो बोर्ड पेपर में आने जा रहे है।
JAC Jharkhand Board क्लास 12th के History (इतिहास ) (Top 25 Long Answer Questions) से संबंधित महत्वपूर्ण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रश्न दिए गए है। महत्वपूर्ण प्रश्नों का एक संग्रह है जो बहुत ही अनुभवी शिक्षकों के द्वारा तैयार किये गए है। इसमें प्रत्येक महत्वपूर्ण प्रश्नों को छांट कर एकत्रित किया गया है, जो आपके पेपर के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, जिससे कि विद्यार्थी कम समय में अच्छे अंक प्राप्त कर सके। सभी प्रश्नों के उत्तर साथ में दिए गए हैं।
झारखंड बोर्ड के सभी विद्यार्थिय अब आपकी History (इतिहास )परीक्षा में कुछ ही घंटे बचे है, विद्यार्थी यहां पर से अपने बोर्ड एग्जाम की तैयारी बहुत ही आसानी से कर सकते हैं।
JAC 12th History Long Answer Questions - दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. पुरातत्वविद हड़प्पा समाज में सामाजिक आर्थिक भिन्नताओं का पता किस प्रकार लगाते हैं ? वह कौन सी भिन्नताओं पर ध्यान देते हैं ?
उत्तर - पुरातत्वविद संस्कृति विशेष के लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नता का पता लगाने के लिए अनेक विधियों का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से दो प्रमुख विधियां हैं शवाधनो का अध्ययन और विलासिता की वस्तुओं की खोज । शवाधानो का अध्ययन शवाधानो का अध्ययन सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नताओं का पता लगाने का महत्वपूर्ण तरीका है। उल्लेखनीय है कि हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न पुरास्थलों में जो शवाधान मिले हैं उनसे स्पष्ट होता है कि मृतकों को सामान्य रूप से गर्यो अथवा गड्ढों में दफनाया जाता था। परंतु सभी गर्तों की बनावट एक जैसी नहीं थी । अधिकांश शवाधान गर्तों की बनावट सामान्य थी, लेकिन कुछ की सतहों पर ईटों की चिनाई की गई थी। ईटों की चिनाई वाले गर्त उच्च अधिकारी वर्ग अथवा संपन्न शवाधान रहे होंगे। शवाधान गर्तौ में शव सामान्य रूप से उत्तर दक्षिण दिशा में रखकर दफनाया जाते थे। कुछ कब्रों में शव मृदभांडों और आभूषणों के साथ दफनाया मिले हैं। और कुछ में तांबे के बर्तन, सीप और सुईया भी मिली है। कुछ स्थानों से बहुमुल्य आभूषण एवं अन्य समान मिले हैं, तो अनेक जगहों से सामान्य आभूषण की प्राप्ति हुई है । कालीबंगा में छोटे-छोटे वृत्ताकार गड्ढों में अन्न के दाने तथा मिट्टी के बर्तन मिले हैं कुछ गड्ढों में हड्डिया भी एकत्रित मिली हैं। इससे स्पष्ट होता है कि हड़प्पा समाज में शव का अंतिम संस्कार विभिन्न तरीकों से कम से कम 3 तरीकों से किया जाता था। शव का सावधानीपूर्वक अंतिम संस्कार करने और आभूषण एवं प्रसाधन सामग्री उनके साथ रखने जैसे तथ्यों से स्पष्ट होता है कि हड़प्पा वासी मरणोपरांत जीवन में विश्वास करते थे।
विलासिता की वस्तुओं का पता लगाना - सामाजिक एवं आर्थिक भिन्नता के अस्तित्व का पता लगाने की एक अन्य महत्वपूर्ण विधि विलासिता की वस्तुओं का पता लगाना है। साधनों से उपलब्ध होने वाली पुरा वस्तुओं का अध्ययन करके पुरातत्वविद उन्हें दो वर्गों अर्थात उपयोगी और विलास की वस्तुओं में विभाजित करते हैं। प्रथम वर्ग अर्थात उपयोगी वस्तुओं के अंतर्गत दैनिक उपयोग की वस्तुएं जैसे चक्किया, मृदभांड सुई आदि आती है। इन्हें पत्थर अथवा मिट्टी जैसे सामान्य पदार्थों से आसानी पूर्वक बनाया जा सकता था। इस प्रकार की वस्तुएँ लगभग सभी हड़प्पा पुरास्थलों से प्राप्त हुई हैं। विलासिता की वस्तुओं के अंतर्गत बहुत महंगी अथवा दुर्लभ वस्तुएँ सम्मिलित थी। जिनका निर्माण स्थानीय स्तर पर अनुपलब्ध पदार्थों से एवं जटिल तकनीकों द्वारा किया जाता था। ऐसी वस्तुएँ मुख्य रूप से हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे महत्वपूर्ण नगरों से ही मिली है। ऐसा प्रतीत होता है कि हड़प्पा समाज में विद्यमान विभिन्नताओं का प्रमुख आधार आर्थिक स्थिति ही रहा होगा। उदाहरण के लिए कालीबंगा में प्रमाण से पता लगता है कि पुरोहित वर्ग दुर्ग में रहते थे और निचले भाग में स्थित अग्नि वेदिका पर धार्मिक अनुष्ठान करते थे। इसप्रकार पुरातत्वविद हड़प्पा समाज की सामाजिक आर्थिक भिन्नता का पता लगाने के लिए अनेक महत्वपूर्ण बातें जैसे लोगों की सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति नगरों अथवा छोटी बस्तिओं में निवास, खानपान एवं रहन सहन और साधनों से प्राप्त होने वाली बहुमूल्य अथवा सामान्य वस्तुओं पर विशेष रुप से ध्यान देते थे।
प्रश्न 2. हड़प्पाई समाज में शासकों द्वारा किए जाने वाले संभावित कार्यों का संक्षेप में वर्णन करें ?
उत्तर - हड़प्पा सभ्यता के राजनीतिक संगठन के विषय में निश्चय पूर्वक कुछ भी कहना कठिन है। हमें यह ज्ञात नहीं है की हड़प्पा सभ्यता के शासक कौन थे संभव है कि वह राजा होगा या पुरोहित होगा या कोई व्यापारी हंटर महोदय यहाँ के शासन को जनतंत्रात्मक मानते हैं। किंतु पिग्गट एवं महोदय के अनुसार सुमेर की तरह यहाँ के शासक भी पुरोहित ही थे। कुछ विद्वानों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता पर दो राजधानियां हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो से शासन किया जाता था। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार संभवत संपूर्ण क्षेत्र अनेक राज्यों में विभक्त था। इन राज्यों की अपनी अपनी राजधनियां थी। जैसे सिंध की मोहनजोदड़ो पंजाब की हड़प्पा राजस्थान की कालीबंगा एवं गुजरात की लोथल। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता में अनेक राज्यों का अस्तित्व नहीं था बल्कि एक ही राजा के नेतृत्व में वहां पर शासन किया जाता था। सिंधु घाटी सभ्यता के शासन का स्वरूप चाहे जैसे भी हो इतना तो निश्चित है कि यहां का शासन अत्यंत कुशल एवं उत्तरदाई था। हड़प्पाई समाज में शासकों द्वारा अनेक महत्वपूर्ण कार्यों का संपादन किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि शासक राज्य में शांति व्यवस्था को बनाये रखने तथा आक्रमणकारियों से सुरक्षा के लिए उतरदायी था। हड़प्पा सभ्यता की सुनियोजित नगर, सफाई तथा जल निकास की उत्तम व्यवस्था, अच्छी सड़कें, उन्नत व्यापारमाप तौल के एक मानक, सांस्कृतिक विकास, विकसित उद्योग धंधे, संपन्नता आदि इस बात की प्रबल संभावना है कि हड़प्पा सभ्यता के शासक प्रशासनिक कार्यों में विशेष ध्यान देते थे। संभवत हड़प्पा सभ्यता के नगरों के नगर नियोजन में भी राज्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहता होगा। इतिहासकारों का विचार है कि प्राचीन विश्व में जहां-जहां नियोजित वस्तुओं के प्रमाण मिले हैं वहां पर इस बात का प्रमाण मिलता है कि सड़को की योजना का विकास धीरे-धीरे नहीं हुआ है बल्कि एक विशेष ऐतिहासिक समय में इनका निर्माण हुआ है। इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा सभ्यता के शहरों का ईटों का एक जैसा आकार होना या तो कड़े प्रशासनिक नियंत्रण के कारण था या तो लोगो को व्यापक तौर पर ईटों के निर्माण के लिए नियुक्त किया जाता था । इसी प्रकार हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थानों से तांबे, मिट्टी के बर्तन और कांसे के बर्तन मिलने से यह अनुमान लगाया जाता है कि इनका भी निर्माण इसी प्रकार किया गया होगा। इसी प्रकार अनुमान लगाया जाता है कि विभिन्न नगरों की योजना राज्य द्वारा ही बनाया गया होगा और विभिन्न स्थानों पर सड़कों नालियों का निर्माण राज्य द्वारा ही किया गया होगा।
उल्लेखनीय है कि हड़प्पा सभ्यता के शहरी केंद्रों की योजनाका अध्ययन करने पर पता चलता है, की नागरिक व्यवस्था की उचित देखरेख और विशाल जल निकास व्यवस्था थी। निकास के लिए प्रत्येक गली में नाली बनी होती थी । गली में बनी यह नाली नगर नियोजन का एक हिस्सा थी। घर अलग-अलग अपने-अपने ढंग से इस कार्य को संपादित नहीं कर सकते थे। इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि प्रशासन द्वारा स्वयं सभी कार्यों को नियंत्रित किया जाता था तथा इनकी देखरेख का कार्य किया जाता था। ऐसा लगता है कि शिल्प उत्पादन का कार्य और वितरण का कार्य शासकों द्वारा हीनियंत्रित किया जाता था। यही कारण है कि कुछ उद्योग विशेष रुप से कम वजन वाले कच्चे माल ईर्धन के स्रोत के निकट स्थापित होते थे और कुछ वहाँ स्थित थे जहाँ इनकी खपत अधिक थी। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे नगरों में विशाल अन्नागारों का मिलना इस बात की प्रबल संभावना है कि सिंधु घाटी सभ्यता के शासक को हमेशा ही प्रजाहित की चिंता रहती थी इसलिए अनाज को विशाल अन्नागारो में सुरक्षित रख लिया था ताकि आवश्यकतानुसार आपात स्थिति में इनका प्रयोग किया जा सके।
प्रश्न 3. मगध साम्राज्य के शक्तिशाली होने के क्या कारण थे ?
उत्तर - छठी शताब्दी ई० पूर्व से चौथी शताब्दी ई. पूर्व तक एक प्रमुख शक्ति के रूप मे मगध महाजनपद के शक्तिशाली होने के निम्नलिखित कारण थे :
1. भौगोलिक स्थिति :- मगध की दोनो राजधानियों राजगृह और पाटलिपुत्र सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान पर स्थित थी। राजगीर पाँच पहाड़ियों से घिरा एक दुर्ग के समान था वही पाटलिपुत्र गंगा, गंडक और सोन नदियों तथा पुनपुन नदी से घिरे होने के कारण एक जलदुर्ग के समान था ।
2. लोहे के समृद्ध भंडार :- मगध के दक्षिणी क्षेत्र आधुनिक झारखंड में लोहे के भंडार होने के कारण लोहे के हथियार एवं उपकरण आसानी से उपलब्ध थे।
3. उपजाऊ कृषि :- मगध का क्षेत्र कृषि की दृष्टि से काफी उर्वर था। यहां के लोग अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर थे।
4. जलमार्ग से यातयात के साधन :- गंगा तथा उसकी सहायक नदियों के समीप होने के कारण जलमार्ग से यात्रा सस्ता एवं आसान था।
5. हाथी की उपलब्धता :- इस क्षेत्र के घने जंगलो में हाथी काफी संख्या में पाये जाते थे जिनका युद्ध में काफी महत्व था। हाथी से दलदल स्थान तथा दुर्गो को तोड़ने में काफी सहायता मिलती थी।
6. योग्य शासक :- मगध के आरंभिक शासक बिंबिसार, अज्ञातशत्रु और महापद्मनंद आदि अत्यधिक योग्य एवं महत्वाकांक्षी थे। इनकी नीतियों ने मगध का विस्तार किया।
प्रश्न 4. क्या यह संभव है की महाभारत का एक ही रचियता था ?
उत्तर - महाभारत के रचनाकार के विषय में भी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। जनश्रुतियों के अनुसार महर्षि व्यास ने इस ग्रंथ को श्रीगणेश जी से लिखवाया था। परंतु आधुनिक विद्वानों का विचार है कि इसकी रचना किसी एक लेखक द्वारा नहीं हुई। वर्तमान में इस ग्रंथ में एक लाख श्लोक हैं। लेकिन शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक ही थे। दीर्घकाल में रचे गए इन श्लोकों का रचयिता कोई एक लेखक नहीं हो सकता। विजयों का बखान करने वाली यह कथा परंपरामौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलती रही। इतिहासकारों का अनुमान है कि पाँचवीं शताब्दी ई०पू० से इस कथा परंपरा को ब्राह्मण लेखकों ने अपनाकर इसे औरविस्तार दिया। साथ ही इसे लिखित रूप भी दिया। यही वह समय था जब उत्तर भारत में क्षेत्रीय राज्यों और राजतंत्रों का उदय हो रहा था। कुरु और पांचाल, जो महाभारत कथा के केंद्र बिंदु है, भी छोटे सरदारी राज्यों से बड़े राजतंत्रों के रूप में उभर रहे थे। संभवतः इन्हीं नई परिस्थितियों में महाभारत की कथा में कुछ नए अंश शामिल हुए। यह भी संभव है कि नए राजा अपने इतिहास को नियमित रूप से लिखवाना चाहते हों अतः ऐसा मानना की महाभारत का एक ही रचियता था, संभव प्रतीत नहीं होता।
प्रश्न 5. आरंभिक समाज में स्त्री-पुरुषके संबंधों की विषमतायें कितनी महत्वपूर्ण रही होगी ? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर - आरंभिक समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों में अनेक विषमताएँ थीं। हालाँकि स्त्रियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।विशेषकर पुत्रों को जन्म देने वाली माता के प्रति परिजन अधिक ह अभिव्यक्त करते थे। जिसकी कोख से अधिक सुंदर सुशील, वीर, सद्गुण संपन्न, विद्वान पुत्र पैदा होते थे, समाज मैं उस स्त्री को निःसंदेह अधिक सम्मान से देखा जाता था।
समाज में पितृसत्तात्मक परिवारों का प्रचलन था । पितृवंशिकता को ही सभी वर्गों और जातियों में अपनाया जाता था। कुछ विद्वान और इतिहासकार सातवाहनों को इसका अपवाद मानते हैं। उनके अनुसार सातवाहनों में मातृवंशिकता थी क्योंकि इनके राजाओं के नाम के साथ माता के नाम जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए, अभिलेखों से सातवाहन राजाओं की कई पीढ़ियों के राजा गौतमी पुत्र शतकर्त्री । उपनिषद भी समाज में स्त्री-पुरुषों के अच्छे संबंधों के प्रमाण देते हैं। समाज में विवाहिता स्त्रियाँ अपने पति को सम्मान देती थीं और वे प्रायः उनके गोत्र के साथ जुड़ने में कोई आपत्ति नहीं करती थी।
कुछ इसी प्रकार का महाभारत में उल्लेख मिलता है कि जब कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध अवश्यंभावी हो गया तो गांधारी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन से युद्ध न करने की विनती की शांति की संधि करके तुम अपने पिता, मेरा तथा अपने शुभचिंतकों का सम्मान करोगे। जो पुरुष अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है, वह पुरुष ही राज्य की देखभाल कर सकता है। लालच और क्रोध एक बुरी बला है।" किंतु दुर्योधन ने माँ की सलाह नहीं मानी। फलतः उसका अंत बहुत ही बुरा हुआ।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि आरंभिक समाज में लैंगिक असमानता प्रचलित थी।
प्रश्न 6. महाभारत ग्रंथ की गतिशीलता की ब्याख्या कीजिए।
उत्तर - निम्नलिखित बिंदु साबित करते हैं कि महाभारत गतिशील हैं।
1. महाभारत का विकास संस्कृत संस्करण के साथ नहीं रुका। सदियों से, महाकाव्य के संस्करण लोगों, समुदायों और ग्रंथों को लिखने वालों के बीच संवाद की एक सतत प्रक्रिया के माध्यम से विभिन्न भाषाओं लिखे गए थे।
2. कई कहानियाँ जो विशिष्ट क्षेत्रों में उत्पन्न हुईं या कुछ लोगों के बीच प्रचलित हुईं, उन्हें महाकाव्य में अपना रास्ता मिल गया।
3. महाकाव्य की केंद्रीय कहानी अक्सर अलग- अलग तरीकों से दोहराई जाती थी और एपिसोड को मूर्तिकला और पेंटिंग में चित्रित किया गया था।
उन्होंने प्रदर्शन कलाओं की एक विस्तृत श्रृंखला जैसे नाटक, नृत्य और अन्य प्रकार के आख्यानों को भी प्रदर्शित किया।
प्रश्न 7. महाभारत की प्रासंगिकता को विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर - महाभारत की वर्तमान में प्रासंगिकता की चर्चा भी महत्वपूर्ण है और सदा रहेगी। महाभारत हमारा साहित्य (महाकाव्य) है, इतिहास है और हमारा अध्यात्म है। इसमें न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र है। जो अपने समय का शाश्वत सत्य भी है। एक ऐसे युद्ध की कथा और व्यथा है, जो हमें न केवल बाहरी बल्कि भीतरी शत्रुओं से सावधान करता है। भीतरी का अर्थ भी व्यापक है। घर, परिवार, कुटम्ब, समाज, देश ही नहीं, अपने मन-मस्तिष्क के भीतर चल रहे नकारात्मक विचार भी उसमें शामिल है। यथा अर्जुन का विषाद योग। इसमें राग-द्वेष है, श्रृंगार है, वात्सल्य है, द्वेष है, ईर्ष्या है, कामना है, तृष्णा है, क्रोध है, उत्साह है, भय और शोक सब कुछ है। अर्थात् वे सारे भाव आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने सहस्रों वर्ष पूर्व थे। जिस प्रकार प्रकृति के नियम नहीं बदले, आधुनिक होकर भी मानवीय प्रवृत्तियां नहीं बदली उसी प्रकार महाभारत की प्रसंगिकता भी बरकरार है। परिस्थितियों और परिवेश में बहुत बदलाव के बावजूद महाभारत के अनेक प्रसंग वर्तमान में भी समान रूप से प्रासंगिक हैं। महाभारत की प्रासंगिकता धर्मक्षेत्र भगवान कृष्ण जी से ही है। सर्वप्रथम उन्हें प्रणाम उनके चरित्र और व्यवहार से कुछ सीखने का प्रयास करें। श्रीकृष्ण के लिए जनहित महत्वपूर्ण है। शिशुपाल के हमलों से जनता को बचाने के लिए वे ब्रज से द्वारका चले जाते है। अनावश्यक विवादों को टालना उनसे सीखा जा सकता है। आज भी ऐसा करके हम अपने समाज को विवादों से बचा सकते हैं।
प्रश्न 8. स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे? वर्णन कीजिए ?
उत्तर - स्तूप का संस्कृत अर्थ टीला, ढेर या थूहा होता है। स्तूप का संबंध मृतक के दाह संस्कार से था, मृतक के दाह संस्कार के बाद बची हुई अस्थियों को किसी पात्र में रखकर मिट्टी से ढंक देने की प्रथा से स्तूप का जन्म हुआ। क्योंकि इस स्तूप में पवित्र अवशेष रखे होते थे अतः समूचे स्तूप को बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। पहले मात्र भगवान बुद्ध के अवशेषों पर स्तूप बने बाद में बुद्ध के शिष्यों के अवशेषों पर भी स्तूप निर्मित किए गए।
स्तुपों की संरचना स्तूप का प्रारंभिक स्वरूप अर्ध गोलाकार मिलता है उसमें मेधी के ऊपर उल्टे कटोरे की आकृति का थहा पाया जाता है जिसे अंड कहते हैं, इस अंड की ऊपरी चोटी सिरे पर चपटी होती थी जिसके ऊपर धातु पात्र रखा जाता था इसे हर्मिका कहते हैं। यह स्तूप का महत्वपूर्ण भाग माना जाता था। हर्मिका का अर्थ देवताओं का निवास स्थान होता है।
स्तूप को चारों ओर से एक दीवार द्वारा घेर दिया जाता है। जिसे वेदिका कहते हैं। स्तूप तथा वेदिका के बीच परिक्रमा लगाने के लिए बना स्थल प्रदक्षिणा पथ कहलाता है, कालांतर में वेदिका के चारों ओर चार दिशाओं में प्रवेश द्वार बनाए गए प्रवेश द्वार पर मेहराबदार तोरण बनाए गए। इस प्रकार स्तूप की संरचना की गई।
प्रश्न 9. हीनयान एवं महायान संप्रदाय में क्या अंतर है ?
उत्तर - महात्मा बुद्ध की मृत्यु के बाद बौद्ध भिक्षुओं में पारस्परिक कलह और मतभेद उत्पन्न हो गए इस कुव्यवस्था को दूर करने के लिए बौद्ध आचार्यों ने समय-समय पर अनेक सभाओं का आयोजन किया।
बौद्ध धर्म की चौथी और अंतिम सभा सम्राट कनिष्क के काल में कश्मीर के कुंडलवन में बुलाई गई। किंतु यह सभा बौद्ध संघ के मतभेदों को दूर करने में सफल नहीं हो सके। इस सभा में मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म हीनयान और महायान नामक संप्रदाय में विभक्त हो गया।
हीनयान एवं महायान संप्रदाय में अंतर
1. हीनयान मत बौद्ध धर्म का प्राचीन तथा अपरिवर्तित रूप था, महायान बौद्ध धर्म का नवीन एवं संशोधित रूप था।
2. हीनयान संप्रदाय के लोग बुद्ध की मूल शिक्षाओं में आस्था रखते थे अष्टांगिक मार्ग में इनका विश्वास था. महायान संप्रदाय के लोग बुद्ध की शिक्षा में कुछ परिवर्तन के द्वारा अपनाएं।
3. हीनयान निर्वाण प्राप्ति के लिए व्यक्तिगत प्रयास को विशेष महत्व दिया करते थे, महायान में निर्वाण प्राप्ति के लिए मुक्तिदाता का होना आवश्यक था।
4. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, महायान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को ईश्वर का रूप मानते थे।
5. हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरोधी थे किंतु महायान संप्रदाय के लोग बुद्ध तथा बोधिसत्व की मूर्तियों की पूजा करते थे।
6. हीनयान संप्रदाय का सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति था किंतु महायान संप्रदाय का सर्वोच्च लक्ष्य स्वर्ग प्राप्ति था।
7. हीनयान धर्म का संरक्षक सम्राट अशोक था एवं इनकी पुस्तकें पाली भाषा में लिखी गई थी। महायान संप्रदाय का संरक्षक सम्राट कनिष्क था एवं इनकी पुस्तकें संस्कृत भाषा में लिखी गई थी।
प्रश्न 10. वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था पर अलबरूनी के विवरण का परीक्षण कीजिए ?
उत्तर - अरबी लेखक अलबरूनी ने भारत के विषय में अपनी पुस्तक 'किताब-उल-हिन्द' या 'तहकीक-ए- हिंद में भारत की सामाजिक स्थिति, रीति-रिवाजों, भारतीय खान पान, वेशभूषा उत्सव, त्योहार आदि के विषय में विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। अपनी पुस्तक 'किताब-उल-हिंद' के नौवे अध्याय में अलबरूनी ने भारतीय जाति व्यवस्था पर विस्तार से प्रकाश डाला है। अलबरूनी के अनुसार भारतीय समाज चार वर्णों में बंटा हुआ था। 1. ब्राह्मण 2. क्षत्रिय 3. वैश्य 4. शूद्र ।
इन चारों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ थे। और इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के सिर से हुई थी । क्षत्रिय की उत्पत्ति ब्रह्मा के कंधे और हाथ से जबकि वैश्यों की उत्पत्ति जांघों से हुई थी। इसलिए समाज ब्राह्मणों के बाद क्षत्रियों का और उसके बाद वैश्यो का स्थान था। समाज के सबसे निचले स्थान पर शूद्र थे क्योंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के पैर से हुई थी। प्रत्येकं वर्ण, जाति और उप-जाति में बटा हुआ था । वर्ण और जाति-व्यवस्था के बाहर भी अनेक सामाजिक समूह थे जिन्हें अल- बरुनी 'अंत्यज' कहते हैं और इनकी स्थिति के बारे में बताते हुए अलबरूनी कहते हैं कि इनकी स्थिति शूद्रों से भी नीची थी। इनकी आठ जातियाँ थी धुनिये, मोची, मदारी, टोकरी और ढाल बनाने वाले, नाविक, मछली पकड़ने वाले, आखेट करने वाले एवं जुलाहे । ये नगरों और गांव के बाहर रहते थे। अंत्यजो से भी खराब स्थिति "गंदा काम करने वाले लोगों का था। इसके अंतर्गत हादी, डोम, चांडाल और वध थे । ये चारों एक अलग सामाजिक वर्ग के थे। इनकी स्थिति अछूतों के समान थी। इन्हें सामान्यतः शुद्र पिता और ब्राह्मण र्माता की अवैध संतान माना जाता था। और इनका अन्य वर्गों तथा जाति के लोगों से सामाजिक संपर्क नहीं होता था।
प्रश्न 11. अलबरूनी को भारत का वृतांत लिखने में किन किन बाधाओं का सामना करना पड़ा था ?
उत्तर - अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय में अलबरूनी उन बाधाओं का उल्लेख करते हैं जो उसे भारत का यात्रा वृतांत लिखने में करना पड़ा था। जो इस प्रकार है -
(1) भाषा संबंधी अवरोध :- अलबरूनी के अनुसार संस्कृत, अरबी व फारसी इतनी अलग थी कि विचारों और सिद्धांतों का एक भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करना एक कठिन कार्य था।
(2) स्थानीय लोगों में अलगाव की भावना :- दूसरा अवरोध स्थानीय लोगों के स्वाभिमान एवं अलगाव की भावना विद्यमान थी वे अपरिचितों या यात्रियों से बात करने या अपने विचारों को प्रकट करना नहीं चाहते थे।
(3) धार्मिक दशा :- तीसरा अवरोध धार्मिक दशा एवं प्रथाओं की भिन्नता से संबंधित थी। विदेशियों को हिंदू "म्लेच्छ" कहते थे। उनके साथ किसी भी प्रकार का संबंध रखने को निषेध मानते है अन्य धर्मावलंबियों के लिए उनके द्वार सदा के लिए बंद रहते थे क्योंकि उनका मानना था कि ऐसा करने पर वह धर्म भ्रष्ट हो जाएंगे।
(4) रीति-रिवाजों एवं मान्यताओं में भिन्नता :- भारतीय अपने रीति-रिवाजों व मान्यताओं को श्रेष्ठ मानते थे। यहां के रीति-रिवाज एवं मान्यता इतनी कठोर थी कि अलबरूनी को अपनी यात्रा वृतांत लिखने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि भारत के लोग हमारे नाम से हमारे वस्त्रों से और हमारी रीतियो व व्यवहार से डरते थे और हमें शैतान की औलाद बता कर हमारे कार्य को सभी कामों के विरुद्ध बताते थेजिन्हें वे अच्छा और उचित मानते थे।
प्रश्न 12. शेख निजामुद्दीन औलिया की खानकाह के सामाजिक जीवन के विषय में क्या जानकारी मिलती है ? क्या खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु थे ? चर्चा करें।
उत्तर - शेख निजामुद्दीन औलिया की खानकाह से कई महत्वपूर्ण तथ्य को जानने में सहायता मिलती है। यह खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु था। यह खानकाह दिल्ली शहर की बाहरी सीमा पर यमुना नदी के किनारे ग्यासपुर में था। यहां कई छोटे - छोटे कमरे और एक बड़ा हॉल जमातखाना था जहां सहवासी और अतिथि रहते और उपवास करते थे। सहवासियों में शेख का अपना परिवार सेवक और अनुयाई थे। शेख एक छोटे कमरे में छत पर रहते थे जहां वह मेहमानों से सुबह-शाम मिला करते थे आंगन एक गलियारे से घिरा होता था और खानकाह को चारों ओर से दीवार घेरे रहती थी। एक बार मंगोल आक्रमण के समय पड़ोसी क्षेत्र के लोगों ने खानकाह में शरण ली। यहां एक सामुदायिक रसोई (लंगर) फुतूह ( बिना मांगे खैर ) पर चलती थीं। सुबह से देर रात तक सब तबके के लोग सिपाही, गुलाम, गायक, व्यापारी, कवि राहगीर, धनी और निर्धन, हिंदू, जोगी और कलंदर यहां अनुयाई बनने, इबादत करने ताबीज लेने अथवा विभिन्न मसलों पर शेख की मध्यस्थता के लिए आते थे ।
कुछ अन्य मिलने वालों में अमीर हसन रिजवी और अमीर खुसरो जैसे कवि तथा दरबारी इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी जैसे लोग शामिल थे। इन सभी लोगों ने शेख के बारे में लिखा- किसी के सामने झुकना, मिलने वालों को पानी पिलाना, दीक्षितों के सर का मुंडन तथा यौगिक व्यायाम आदि व्यवहार इस तथ्य के पहचान थे कि स्थानीय परंपराओं को आत्मसात करने का प्रयत्न किया गया है।
शेख निजामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव किया और उन्हें उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए शेख का यश चारों ओर फैल गया। उनकी तथा उनके आध्यात्मिक पूर्वजों की दरगाह पर अनेक तीर्थयात्री आने लगे।
प्रश्न 13. कमल महल और हाथियों के अस्तबल जैसे भवनों का स्थापत्य हमें उनके बनवाने वाले शासकों के विषय में क्या बताता है ?
उत्तर - राजकीय केंद्र के सबसे सुंदर भवनों में एक लोटस महल है, जिसका यह नामकरण 19वीं शताब्दी के अंग्रेज यात्रियों ने किया था। विजयनगर के लगभग सभी शासकों की
स्थापत्य कला में विशेष रुचि थी। मध्यकालीन अधिकांश राजधानियों के समान विजयनगर की संरचना में भी विशिष्ट भौतिक रूप-रेखा तथा स्थापत्य शैली परिलक्षित होती है। पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित विजयनगर एक विशाल शहर था। इसमें अनेक भव्य महल, सुंदर आवास- स्थान, उपवन और झीलें थीं जिनके कारण नगर देखने में अत्यधिक आकर्षक एवं मनमोहक लगता था। बस्ती के दक्षिण पश्चिमी भाग में शाही केंद्र स्थित था जिसमें अनेक महत्वपूर्ण भवनों को बनाया गया था। लोटस महल अथवा कमल महल और हाथियों का अस्तबल इसी प्रकार की दो महत्वपूर्ण संरचनाएं थी। इन दोनों संरचनाओं से हमें उनके निर्मार्ता, शासकों की अभिरुचियों एवं नीतियों के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। शाही केंद्र के महलों में सर्वाधिक सुंदर कमल महल था ।
यह नामकरण महल की सुंदरता एवं भव्यता से प्रभावित होकर अंग्रेज यात्रियों द्वारा किया गया था। स्थानीय रूप से इस महल को चितरंजनी महल के नाम से जाना जाता है। यह दो मंजिलों वाला एक खुला चौकोर मंडप है। नीचे की मंजिल में पत्थर का एक सुसज्जित अधिष्ठान है। ऊपर की मंजिल में लड़कियों वाले कई सुंदर झरोखे हैं। कमल महल में 9 मीनारें थीं। बीच में सबसे ऊंची मीनार थी और 8 मीनारें उसकी भुजाओं के साथ-साथ थीं। महल की मेहराबों में इंडो- इस्लामिक तकनीकों का स्पष्ट प्रभाव था, जो विजयनगर शासकों की धर्म सहनशीलता की नीति का परिचायक है।
संभवतः यह एक परिषद भवन था, जहां राजा और उसके परामर्शदाता विचार-विमर्श के लिए मिलते थे। हाथियों का विशाल फीलखाना ( हाथियों का अस्तबल अथवा रहने का स्थान ) कमल भवन के समीप ही स्थित था। फीलखाना की विशालता से स्पष्ट होता है कि विजयनगर के शासक अपनी सेना में हाथियों को अत्यधिक महत्व देते थे। उनकी विशाल एवं सुसंगठित सेना में हाथियों की पर्याप्त संख्या थी। फीलखाना की स्थापत्य कला शैली पर इस्लामी स्थापत्य कला शैली का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसके निर्माण में भारतीय इस्लाम स्थापत्य कला शैली का अनुसरण किया गया है। इसमें यह भी स्पष्ट होता है कि विजयनगर के शासक धार्मिक दृष्टि से उदार एवं सहनशील थे ।
प्रश्न 14. पंचायत और गांव का मुखिया किस तरह से ग्रामीण समाज का नियमन करते थे ? विवेचना कीजिए ।
उत्तर - 16 वीं और 17 वीं शताब्दी के काल में ग्रामीण समाज में पंचायत और मुखिया का पद बहुत महत्वपूर्ण था। ये दोनों पद ग्रामीण समाज की रीढ़ की हड्डी थी ।
पंचायतों का गठन :- मुगलकालीन गाँव की पंचायत गांव के बुजुर्गों की सभा होती थी । प्रायः वे गाँव के महत्वपूर्ण लोग हुआ करते थे। जिनके पास अपनी संपत्ति होती थी जिन गांव में विभिन्न जातियों के लोग रहते थे । वहां पंचायतों में विविधता पाई जाती थी । पंचायत का निर्णय गाँव में सब को मानना पड़ता था।
पंचायत का मुखिया :- पंचायत के मुखिया को मुकद्दम या मंडल कहा जाता था। कुछ स्रोतों से प्रतीत होता है कि मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था। चुनाव के बाद उन्हें उसकी मंजूरी जमींदार से लेनी पड़ती थी । मुखिया तब तक अपने पद पर बना रहता था। जब तक गांव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा था। गांव की आय-व्यय का हिसाब किताब अपनी निगरानी में तैयार करवाना मुखिया का मुख्य काम था। इस काम में पंचायत का पटवारी उसकी सहायता करता था।
पंचायत का आम खजाना :- पंचायत का खर्चा गांव की आम खजाने से चलता था इसमें हर व्यक्ति अपना योगदान देता था। इस कोष का प्रयोग बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए भी होता था । इस कोष से ऐसे सामाजिक कार्यों के लिए भी खर्च होता था जो किसान स्वयं नहीं कर सकते थे। जैसे कि मिट्टी के छोटे-मोटे बांध बनाना या नहर खोदना ।
ग्रामीण समाज का नियमन :- पंचायत का एक बड़ा काम यह देखना था कि गांव में रहने वाले सभी समुदाय के लोग अपनी जाति की सीमाओं के अंदर रहे। पूर्वी भारत में सभी शादियां मंडल की उपस्थिति में होती थी । जाति की अवहेलना को रोकने के लिए लोगों के आचरण पर नजर रखना गांव के मुखिया की एक महत्वपूर्ण जिम्मेवारी थी।
पंचायतों को जुर्माना लगाने तथा किसी दोषी को समुदाय निष्कासित करने जैसे अधिकार प्राप्त थे। समुदाय से बाहर निकलना एक बड़ा कदम था जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जाता था । इसके अंतर्गत दंडित व्यक्ति को दिए गए समय के लिए गांव छोड़ना पड़ता था। इस दौरान वह अपनी जाति तथा व्यवसाय से हाथ धो बैठता था । ऐसे नीतियों का उद्देश्य जातिगत रिवाजों की अवहेलना को रोकना था।
प्रश्न 15. कृषि इतिहास लिखने के लिए आइन एं अकबरी को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने से कौन सी समस्याएं हैं ? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं ?
उत्तर - अनपढ़ किसान लेखन कार्य में असमर्थ था। ऐसे में कृषि इतिहास को जानने के लिए 16 वीं 17 वीं शताब्दी के मुगल दरबार के लेखक और कवियों की रचनाओं का सहारा लेना पड़ता था इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल का ग्रंथ आईन ए अकबरी है। इसमें राज्य के किसानो जमींदारो और नुमाइंदों के रिश्तों को स्पष्ट रूप से दिखाया गया है।
इसका मुख्य उद्देश्य अकबर के साम्राज्य को मेलजोल रखने वाले सत्ताधारी वर्ग के रूप में पेश करना था। अबुल फजल के अनुसार मुगल राज के विरुद्ध कोई विद्रोह या किसी प्रकार के स्वायत सत्ता के दावे का असफल होना निश्चित था। किसानो के बड़े वर्ग के लिए यह एक चेतावनी थी। इस प्रकार आईन-ए-अकबरी मे किसानों के बारे में जो जानकारी मिलती है वह उच्च सत्ता वर्ग की जानकारी है।
सामान्य किसानों के बारे में विशेष विवरण नहीं है। इस अभाव की पूर्ति उन दस्तावेजों से होती है, जो मुगलों की राजधानी के बाहर की स्थानों जैसे गुजरात महाराष्ट्र और राजस्थान से मिले हैं। इन दस्तावेजों से सरकार की आमदनी का ज्ञान होता है। ईस्ट इंडिया कंपनी के दस्तावेज भी कृषि संबंधित जानकारी के साथ दी। ये दस्तावेज किसान जमींदार और राज्य के आपसी संबंधों की जानकारी देते हैं।
प्रश्न 16. असहयोग आन्दोलन के बारे में क्या जानते हैं ? वर्णन करें।
उत्तर - अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के विरोध में गांधीजी ने अगस्त 1920 ई. को असहयोग आन्दोलन प्रारंभ करने की घोषणा की। 1920 ई. के कलकत्ता के विशेष अधिवेशन तथा नागपुर अधिवेशन में गांधी जी की घोषणा का कांग्रेस ने समर्थन किया ।
असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम :-
A. उपाधियों और अवैतनिक पदों का बहिष्कार ।
B. सरकारी सभाओं का बहिष्कार ।
C. स्वदेशी का प्रयोग ।
D. सरकारी स्कूलों व कॉलेजों का परित्याग ।
E. वकीलों द्वारा सरकारी न्यायालय का परित्याग ।
F. राष्ट्रीय न्यायालयों की स्थापना ।
G. हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल ।
H. अस्पृश्यता की समाप्ति ।
गांधीजी तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा उपाधियों के परित्याग से इस आंदोलन की शुरुआत हुई। कांग्रेस ने विधानमंडल के चुनाव का बहिष्कार किया । स्वदेशी शिक्षण संस्थान स्थापित किए गए जैसे काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, जामिया मिलिया इस्लामिया आदि, विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई । चरखे का प्रचलन बढ़ा तिलक स्वराज फंड' की स्थापना हुई और शीघ्र ही इसमें 1 करोड़ रुपये जमा हो गए। स्वशासन के स्थान पर स्वराज को अंतिम लक्ष्य घोषित किया गया।
आंदोलन के दौरान हिन्दू मुस्लिम एकता का भी प्रस्फुटन हुआ। असहयोग आंदोलन का प्रारंभ शहरी मध्यम वर्ग की हिस्सेदारी से प्रारंभ हुआ। विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिये, शिक्षकों ने त्यागपत्र दे दिया, वकीलों ने मुकदमे लड़ने बंद कर दिये तथा मद्रास के अतिरिक्त प्रायः सभी प्रांतों में परिषद् चुनावों का बहिष्कार किया गया। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया, शराब की दुकानों की पिकेटिंग की गयी । व्यापारियों ने विदेशी व्यापार में पैसा लगाने से इन्कार कर दिया। देश में खादी का प्रचलन और उत्पादन बढ़ा। सरकार ने इस आंदोलन को सख्ती से दबाया।
असहयोग आंदोलन को वापस लेने का फैसला 5 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश की चोरीचौरा नामक स्थान में आंदोलनकारियों और पुलिस में झड़प हो गई जिसमें 22 पुलिस वाले मारे गए। इस घटना से गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। अंततः 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन की समाप्ति कर दी गई।
असहयोग आंदोलन के प्रभाव :-
(i) आंदोलन ने राष्ट्रीय भावना का विकास किया, अंग्रेजो के प्रति विरोध का वातावरण बनाया।
(ii) स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल में वृद्धि हुई और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हुआ।
(iii) देशी शिक्षण संस्थाओं का विकास हुआ।
(iv) कांग्रेसी पार्टी भी अपनी नीतियों एवं कार्यक्रमों में बदलाव किया।
(v) हिंदी को राष्ट्रभाषा का महत्त्व दिया गया तथा अंग्रेजी के प्रयोग में कमी आई।
(vi) खादी का प्रचलन प्रारंभ हुआ। चरखा राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बन गया।
(vii) आंदोलन जनसाधारण तक पहुंची।
(viii) आंदोलन की असफलता ने कांतिकारी गतिविधियों को प्रेरणा दी।
प्रश्न 17. 'भारत छोड़ो' आंदोलन के कारण और प्रभाव बताइए । अथवा, स्पष्ट कीजिए कि 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन सही मायने में एक जन आन्दोलन था ?
उत्तर - भारत छोड़ो आंदोलन के कारण :
1. मार्च 1942 में क्रिप्स मिशन की असफलता से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन भारतीयों को किसी भी प्रकार के शासन का अधिकार देना नहीं चाहता था।
2. विश्व युद्ध के कारण कीमतों में वृद्धि तथा रोजाना की वस्तुओं के अभाव के कारण जनता में असंतोष बढ़ रहा था।
3. जनता ब्रिटिश विरोधी भावना और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की समर्थक बन गई थी।
4. द्वितीय विश्व युद्ध में भारत का ब्रिटिश को बिना शर्त सहयोग से इनकार करना।
5. कांग्रेस से जुड़े विभिन्न निकाय जैसे अखिल भारतीय किसान सभा, फॉरवर्ड ब्लॉक आदि ने दो दशकों से अधिक समय से आंदोलन करके इस आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार कर रखी थी।
14 जुलाई 1942 को वर्धा अधिवेशन में कांग्रेस कार्य समिति ने भारत छोड़ो आंदोलन के निर्णय को स्वीकृति दी । 08 अगस्त मुंबई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमे महात्मा गाँधी ने 'अँगरेजो भारत छोड़ो' (Quit India) का प्रस्ताव रखा। अँगरेजों के भारत छोड़ देने अर्थात् उनके द्वारा अपनी सत्ता हटा लेने के उपरांत भारत की शासन व्यवस्था और सरकार के निर्माण के संबंध में भी एक व्यापक रूपरेखा भी प्रस्तुत की गयी। आंदोलन में महात्मा गांधी ने 'करो या मरो' (Do or Die) का नारा जनता को दिया। 8 अगस्त 1942 को समस्त शीर्ष नेता गिरफ्तार कर लिए गए। आंदोलन की शुरुआत 9 अगस्त 1942 से हुई । काँग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर दिया गया। सभाओं और प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सरकार ने आंदोलन का दमन पूरी बर्बरता और कठोरता के साथ किया था। समूचा देश सैन्य शिविरों में बदल गया था। सेना और पुलिस का राज्य स्थापित हो गया था। जनता का विद्रोह अहिंसात्मक सत्याग्रह से हटकर ब्रिटिश सत्ता के समस्त प्रतीकों पर हमले के रूप में आया जैसे डाकघरों को जलाना, रेल की पटरी को उखाड़ना, तिरंगा झंडा फहराना आदि।
भारत छोड़ो आंदोलन के प्रभाव :
(1) सरकार की दमनकारी कार्यवाहियों से जनता नाराज हो उठी। भारतीय जनता पूरी तरह से अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई थी।
(2) हड़ताल, प्रदर्शन, तोड़-फोड़ और हिंसा की अनिगिनत घटनाएँ हुई। सरकारी सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचाया गया। रेलवे स्टेशन, थाने, डाकघर जला दिये गये। रेल की पटरियाँ उखाड़ कर पुल क्षतिग्रस्त कर आवागमन के सारे मार्ग बंद कर दिये गये।
(3) किसानों, मजदूरों, छात्रों, स्त्रियों आदि समाज के सभी वर्गों के विशाल जनसमूह ने इस आंदोलन में भाग लेकर इसे जन आंदोलन बनाया।
(4) इस आंदोलन द्वारा जनसमर्थन और समांतर सरकार ने यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति कितना गहरा असंतोष व नफरत है।
(5) इस आंदोलन के बाद ब्रिटिश शासन को यह अहसास हो गया कि भारत को और अधिक दिनों तक अपने अधीन नहीं रखा जा सकता है।
(6) अंतरराष्ट्रीय स्तर में भी भारतीय जनता के गहरे असंतोष एवं दमनकारी कार्रवाई की जानकारी मिल गयी। फलतः उन्होंने भी ब्रिटिश सरकार पर भारत को स्वतंत्र करने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारत छोड़ो आन्दोलन सही मायने में एक जन आन्दोलन था।
प्रश्न 18. ब्रिटिश भारत का बंटवारा क्यों किया गया ?
उत्तर - भारत का विभाजन अंग्रेज़ी सरकार की नीतियों की चरम सीमा तथा सांप्रदायिक दलों द्वारा उत्पन्न जटिल स्थितियों का परिणाम था। जिसे निम्नलिखित तथ्यों से बात स्पष्ट हो जाएगी।
1. फूट डालो और राज्य करो की नीति- 1857 ई० के विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत में फूट डालो और राज्य करो की नीति अपना ली। उन्होंने भारत के विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे के प्रति खूब लड़ाया। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को एक-दूसर के विरुद्ध भड़काया। इसका परिणाम यह हुआ कि वे एक-दूसरे से घृणा करने लगे।
2. मुस्लिम लीग के प्रयत्न - 1906 ई० में मुसलमानों ने मुस्लिम लीग नामक संस्था की स्थापना कर ली। फलस्वरूप हिंदू- मुस्लिम भेदभाव बढ़ने लगा । मुस्लिम लीग ने मुस्लिम समाज में सांप्रदायिकता फैलानी आरंभ कर दी। मुस्लिम लीग के संकीर्ण सांप्रदायिक दृष्टिकोण ने हिंदू-मुसलमानों में मतभेद उत्पन्न करने और अन्ततः पाकिस्तान के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। लीग ने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत का प्रचार किया और मुस्लिम जनसामान्य को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि अल्पसंख्यक मुसलमानों को बहुसंख्यक हिंदूओं से भारी खतरा है। 1937 ई० में कांग्रेस द्वारा संयुक्त प्रांत में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर मन्त्रिमंडल बनाने से इनकार कर दिए जाने पर लीग ने इस्लाम खतरे में है का नारा लगाया और कांग्रेस को हिंदुओं की संस्था बताया। 1940 ई० तक हिंदू- मुस्लिम भेदभाव इतना बढ़ गया कि मुसलमानों ने अपने लाहौर प्रस्ताव में पाकिस्तान की माँग की।
3. कांग्रेस की कमजोर नीति- मुस्लिम लीग की मांग दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी और कांग्रेस इन्हें स्वीकार करती रही। 1916 ई0 के लखनऊ समझौते के अनुसार कांग्रेस ने सांप्रदायिक चुनाव प्रणाली को स्वीकार कर लिया। कांग्रेस की इस कमजोर नीति का लाभ उठाते हुए मुसलमानों ने देश के विभाजन की माँग करनी आरंभ कर दी।
4. सांप्रदायिक दंगे पाकिस्तान की माँग मनवाने के लिए मुस्लिम लीग ने सीधी कार्यवाही आरंभ कर दी और सारे देश में सांप्रदायिक दंगे होने लगे। इन दंगों को केवल भारत-विभाजन द्वारा ही रोका जा सकता था।
5. अंतरिम सरकार की असफलता 1946 ई० में बनी अंतरिम सरकार में कांग्रेस और मुस्लिम लीग को साथ-साथ कार्य करने का अवसर मिला, परंतु लीग कांग्रेस के प्रत्येक कार्य में कोई न कोई रोड़ा अटका देती थी। परिणामस्वरूप अंतरिम सरकार असफल रही। इससे यह स्पष्ट हो गया कि हिंदू और मुसलमान एक होकर शासन नहीं चला सकते।
6. इंग्लैंड द्वारा भारत छोड़ने की घोषणा 20 फरवरी, 1947 को इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ऐटली ने जून, 1948 ई० तक भारत को छोड़ देने की घोषणा की घोषणा में यह भी कहा गया कि अंग्रेज़ केवल उसी दशा में भारत छोड़ेंगे जब मुस्लिम लीग और कांग्रेस में समझौता हो जाएगा, परंतु मुस्लिम लीग पाकिस्तान प्राप्त किए बिना किसी समझौते पर तैयार न हुई। फलस्वरूप ब्रिटिश ने भारत विभाजन की योजना बनानी आरंभ कर दी।
प्रश्न 19. भारत के बँटवारे के समय औरतों के क्या अनुभव रहे ?
उत्तर - विभाजन के सर्वाधिक दूषित प्रभाव संभवतः महिलाओं पर हुए। विभाजन के दौरान उन्हें दर्दनाक अनुभवों से गुज़रना पड़ा। उनके साथ बलात्कार किया गया। उन्हें अगवा किया गया, बार-बार बेचा और खरीदा गया तथा अंजान हालात में अजनबियों के साथ एक नई ज़िन्दगी बसर करने के लिए विवश किया गया। महिलाएँ मुक, निरीह प्राणियों के समान इन सभी प्रक्रियाओं से गुजरती रहीं। गहरे सदमे से गुजरने के बावजूद कुछ महिलाएँ बदले हुए हालात में नए पारिवारिक बन्धन में बंध गईं। किंतु भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने ऐसे मानवीय सम्बन्धों की जटिलता के विषय में किसी संवेदनशील दृष्टिकोण को नहीं अपनाया। यह मानते हुए कि इस प्रकार की अनेक महिलाओं को बलपूर्वक घर बैठा लिया गया था, उन्हें उनके नए परिवारों से छीनकर पुराने परिवारों के पास अथवा पुराने स्थानों पर भेज दिया गया। इस सम्बन्ध में महिलाओं की इच्छा जानने का प्रयास ही नहीं किया गया। इस प्रकार, विभाजन की मार झेलने वाली उन महिलाओं को अपनी जिन्दगी के विषय में फैसला लेने के अधिकार से एक बार फिर वंचित कर दिया गया। एक अनुमान के अनुसार महिलाओं की बरामदगी के अभियान में कुल मिलाकर लगभग 30,000 महिलाओं को बरामद किया गया। इनमें से 22000 मुस्लिम औरतों को भारत से और 8,000 हिन्दू व सिक्ख महिलाओं को पाकिस्तान से निकाला गया। बरामदगी की यह प्रक्रिया 1954 ई0 में जाकर खत्म हुई | उल्लेखनीय है कि विभाजन की प्रक्रिया के दौरान अनेक ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं, जब परिवार के पुरुषों ने इस ने भय से कि शत्रु द्वारा उनकी औरतों माँ, बहन, बीवी, बेटी को नापाक किया जा सकता था, परिवार की इज्ज़त अर्थात्मा न-मर्यादा की रक्षा के लिए स्वयं ही उनको मार डाला। उर्वशी बुटालिया ने अपनी पुस्तक दि अदर साइड ऑफ़ साइलेंस में रावलपिंडी जिले के धुआ खालसा गाँव के एक ऐसे ही दर्दनाक हादसे का ज़िक्र किया है। बताते हैं कि तक्सीम के समय सिखों के इस गाँव की 90 औरतों ने "दुश्मनों के हाथों में पड़ने की बजाय "अपनी मर्जी से कुएँ में कूदकर अपनी जान दे दी। इस प्रकार विभाजन के दौरान महिलाओं को अनेक दर्दनाक अनुभव से गुजरना पड़ा।
प्रश्न 20. महात्मा गांधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिंदुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए ?
उत्तर - गांधीजी अनेक कारणों से हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में थे जो निम्नलिखित है।
1. हिंदी और उर्दू के मेल से उत्पन्न हुई हिंदुस्तानी भारतीय जनता के एक विशाल भाग की भाषा थी।
2. हिंदुस्तानी विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई थी और इस प्रकार यह जन सामान्य की एक साझी भाषा बन गई थी।
3. हिंदुस्तानी में समय के साथ साथ अनेक नए नए शब्दों और अर्थों का समावेश होता गया था, इस कारण विभिन्न क्षेत्रों के अनेक लोग इसे भली-भांति समझ सकते थे।
4. गांधी जी का विचार था कि राष्ट्रीय भाषा एक ऐसी भाषा होनी चाहिए जिससे सभी लोग सरलता पूर्वक समझ सकें हिंदुस्तानी भाषा इस पर खरी उतरती थी।
5. हिंदुस्तानी न तो संस्कृत निष्ठ हिंदी थी और ना ही फारसी निष्ठ उर्दू, यह दोनों का सुंदर मिश्रण थी।
6. हिंदुस्तानी में विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के अनेक शब्द विद्यमान थे गांधी जी का विश्वास था कि हिंदुस्तानी बहुसांस्कृतिक भाषा थी और विभिन्न समुदायों के मध्य संचार की आदर्श भाषा हो सकती थी।
7. गांधीजी के विचार अनुसार हिंदुस्तानी हिंदू और मुसलमानों को तथा उत्तर और दक्षिण के लोगों को समान रूप से एकजुट करने में समर्थ हो सकती थी।
प्रश्न 21. भारतीय संविधान के निर्माण में डॉ. भीमराव अंबेडकर की भूमिका का वर्णन करें ?
उत्तर - भारतीय संविधान के निर्माण में डॉ. भीमराव अंबेडकर की भूमिका :-1. संविधान सभा के सदस्य के रूप में भारत के स्वतंत्रता के बाद जब कैबिनेट मिशन योजना के तहत भारतीय संविधान सभा और संविधान का निर्माण हुआ तो उसमें डॉ. अंबेडकर का अमूल्य योगदान रहा उनके योगदान को देखते हुए ही डॉ. अंबेडकर को भारतीय संविधान का सृजनकर्ता, निर्माता एवं जनक कहा जाता है।2. प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में संविधान निर्माण के कार्य में संविधान से संबंधित अनेक समितियों का गठन किया गया, जिसमें एक सबसे प्रमुख समिति थी प्रारूप समिति | जिसे ड्राफ्टिंग कमिटी या पांडू लेखन समिति भी कहा जाता है। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर थे। प्रारूप समिति का काम था कि वह संविधान सभा के परामर्श शाखा द्वारा तैयार किए गए संविधान का परीक्षण करें और संविधान के प्रारूप को विचारार्थ संविधान सभा के सम्मुख प्रस्तुत करें।3. संविधान निर्माता के रूप में डॉ. अंबेडकर को समाज में कई बार अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ा था. इन सब का सामना करते हुए उन्होंने ना केवल अछूत मानी जाने वाली जातियों के उत्थान के लिए और उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि संविधान में उनके लिए प्रावधान किए जाने में अहम भूमिका निभाई।
प्रश्न 22. विभिन्न समूह अल्पसंख्यक शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे थे?
उत्तर - विभिन्न समूह अल्पसंख्यक शब्द को निम्नलिखित रूप में परिभाषित कर रहे थे1. कुछ समूह अल्पसंख्यकों के लिए पृथक निर्वाचिका बनाए रखना चाहते थे। मद्रास के बी. पोकर बहादुर का विचार था कि राजनीतिक व्यवस्था में अल्पसंख्यकों को पूर्ण प्रतिनिधित्व दिया जाए, उनकी आवाज को सुना जाए तथा उनके विचारों पर ध्यान दिया जाए।2. समाजवादी विचारों के समर्थक एवं किसान आंदोलन के नेता एन. जी. रंगा का विचार था कि अधिक संख्या गरीब और दबे कुचले लोग थे। अतः अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या संख्या के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक स्तर के आधार पर की जानी चाहिए।3. आदिवासी समूह के प्रतिनिधि जयपाल सिंह की दृष्टि में वास्तविक अल्पसंख्यक आदिवासी लोग थे, जिन्हें वर्षों से अपमानित और उपेक्षित किया जा रहा था। जयपाल सिंह ने स्पष्ट किया कि आदिवासी संख्या की दृष्टि से अल्पसंख्यक नहीं है फिर भी उन्हें संरक्षण की आवश्यकता है उन्हें आदिम और पिछड़ा हुआ माना जाता है तथा उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। जयपाल सिंह पृथक निर्वाचन के पक्ष में नहीं थे किंतु वे विधायिका में आदिवासियों के प्रतिनिधित्व
के लिए सीटों की आरक्षण को आवश्यक समझते थे। एन. जी. रंगा भी आदिवासियों को अल्पसंख्यक समूहों के अंतर्गत रखे जाने के समर्थक थे।4. दमित समूह के के नागप्पा और के. जे. खांडेलकर जैसे नेताओं के अनुसार वास्तविक अल्पसंख्यक दमित समूह थे यद्यपि वे संख्या की दृष्टि से अल्पसंख्यक नहीं थे नागप्पा के विचार अनुसार संख्या की दृष्टि से हरिजन अल्पसंख्यक नहीं थे क्योंकि वे जनसंख्या का लगभग 20 से 25% का निर्माण करते थे उनकी समस्याओं का मूल कारण उन्हें समाज एवं राजनीति के हाशिए पर रखा जाना था वे न तो शिक्षा प्राप्त कर सकते थे और ना ही शासन में भागीदारी | इस प्रकार विभिन्न समूह द्वारा अल्पसंख्यक शब्द को अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया।
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